Tuesday, December 25, 2012

(ग) पाप की लहरें |(१) टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ |


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(दिल्ली-‘यौन-हिंसा’-दिसम्बर-२०१२ पर विशेष)
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‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ |
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आपस में करते हैं दंगे |
उड़ा रहे हैं इन्हें ‘लफंगे’ ||
‘दाँव-पेंच’ कितने ‘शैतानी’ !
अनियंत्रित हो गयीं ‘पतंगें ||
‘अनुशासन की डोरी हो गयी-है कितनी ढीली ||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||१||



‘तोड़-फोड़’ औ ‘आगजनी’ से |
जले जा रहे सभी ‘दरीचे’ ||
‘प्रेम’ के हरे भरे थे सुन्दर-
‘पुरखों ने ‘मेहनत’ से सींचे ||
‘भारत माँ की गर्दन’ झुक गयी, हो कर ‘शर्मीली’ ||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||२||


आज मचलने लगी है देखो !
‘आग’ उगलने लगी है देखो !!
पाकर ‘रगड़’ तोड़ दी ‘चुप्पी’-
‘धूधू’ जलने लगी है देखो !!
करवट बदल के ‘बागी’ हो गयी, ‘माचिश’ की तीली ||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||३||


‘”प्रसून” जल गये, ’कलियाँ’ झुलसीं |
 ‘सारी बगिया’ हुई विकल सी ||
 ‘हिंसा’ ‘शान्ति-वन्’ में पनपी-
 कितनी भीषण ‘दावानल’ सी ||
‘अमन की देवी’ कितना रोई, ‘आँखें’ हैं गीली ||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||४||


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Tuesday, October 2, 2012

गांधी-यश -गन्ध(एक मुक्तक काव्य) - जग में आये बापू जी |

गान्धी-जयन्ती पर विशेष यह प्रस्तुति,
जाजला (मुक्तक काव्य) में

उससे हट कर एक अलग हट कर विशेष प्रस्तुति है !


जग में आये बापू जी |

‘प्रलय-कल’ के सदृश पाप जब, बढे हुये थे  धरती पर |
तब थे तुम ‘अवतार’सरीखे,जग में आये बापू जी |
‘ज्ञान-हीनता की अँधियारी’छायी थी जब धरती पर –
‘जगमग जगमग,जलता ज्योतित दीपक’,लाये बापू जी ||

बिखर चलीं ‘संसृति की लड़ियाँ’,’मन के मोती’टूट गये |
‘मानवता की देवी’ रूठी, ‘सद्गुण सारे’ ;रूठ गये ||
‘निर्दयता’,’हिन्सा’, ‘पीड़ा की अग्नि’ जली थी प्रचण्ड हा !
‘दया’,’अहिंसा’, ‘करुना’ के घन’ साथ में लाये बापू जी |
                     जग में आये बापू जी ||१||

‘अकर्मण्यता’ के हाथों में,कठपुतली सा नाच रहा |
‘महानाश’ का ‘ग्रन्थ’,‘पाप के अक्षर’ से था बांच रहा ||
‘काल-चक्र’ की गति में बेबस, फँसा हुआ था जब भारत |
‘श्रमाक्षरों’ से ‘पुण्य-वेद’ तब रचाने आये बापू जी ||
                     जग में आये बापू जी ||२||

‘अपनी माँ’ को ‘माँ’ न् कहेगा, ऐसा था प्रतिबन्ध  यहाँ |
‘तानाशाही के पिंजरे’ में ‘राष्ट्र-प्रेम’ था बन्द यहाँ ||
‘मात्री-भावना’,’बन्धु-भावना’ सब ‘कारा, में बन्द हुये |   
हमें बचाने, ‘अपनी आहुति’ देने आये बापू जी ||
                  जग में आये बापू जी ||३||

वे गोरे थे नहीं, ’खटमलों का समूह’ था ‘प्यास लिये |
या ‘जोंकों का यूथ’, बस गया, ‘रक्त-पिपासा’ साथ लिये ||
‘श्री’,’वैभव’,’यश’ नहीं,’रक्त’ ही चूस रहा वह भारत का |
‘सात्याग्रह’ नहिं, ‘मत्कुण-नाशक औषधि’ लाये बापू जी ||
                        जग में आये बापू जी ||४||

‘प्रलय-कल’ के सदृश पाप जब, बढे हुये थे  धरती पर |
तब थे तुम ‘अवतार’सरीखे,जग में आये बापू जी |