Saturday, September 29, 2012

ज़लजला(एक भीषण परिवर्तन) (ख)भूचाल भय का (१) !!त्रासदी-त्रासदी- त्रासदी-त्रासदी!!


(सारे चित्र ,गूगल क्गोज से साभार)


हालाँकि भोपाल गैस त्रासदी अब कालातीत हो गयी है,पर त्रासदी

 तो त्रासदी है ; चाहे वह 'महँगाई' की  हो या 'आतंकों' की,

'भ्रष्टाचार' की हो या 'शोषण' की, 'नारी-उत्पीडन' की या 'भ्रूण-

ह्त्या' की, 'दहेज' की हो या 'घूस खोरी' की ! उजागर न 

सही,चोरी छिपे ही सही,हमें वह कचोट तो रही ही है ! अत: मुझे 

लगता है, यह रचना आज भी सटीक है | आप सादर आमंत्रित हैं

 इस 'यथार्थ-उदघाटन-यज्ञ' में !! 
                    
!!त्रासदी-त्रासदी-
त्रासदी-त्रासदी!!
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!


‘पूरब की भोली भव्यता’ |
‘पश्चिम की विकसित सभ्यता’ ||
उफ़,चोट करारी दे गयी-
हर दिशा को यह ‘होतव्यता’ !!



जिधर ध्यान होगा |
जिधर कान होगा ||
जिधर दृष्टि डालो |
जिधर मुहँ उठा लो ||

‘इस ओर’देखो | ‘उस ओर’देखो ||
‘इधर’त्रासदी है | ‘उधर’त्रासदी है ||
 त्रासदी-त्रासदी-त्रासदी-त्रासदी !!१!!



व्याप रही हर देश में |
ठोस,तरल या गैस में ||
दिशि दिशि में,हर कोण में –
घूम रही हर वेश में ||
न कुछ ज्ञान होगा |
न अनुमान होगा ||
जिधर पग बढ़ा लो |
जिधर खोज पालो ||
रचती है यह नाश का खेल,रखती-
नहीं कोई कोरो कसर त्रासदी है ||
त्रासदी-त्रासदी-त्रासदी-त्रासदी !!२!!



वीर जनों की ‘शक्ति’ में |
धीर जनों की ‘भक्ति’ में ||
‘सज्जन-मन अनमोल’ में-
‘सद्गुण मय अनुरक्ति’ में ||
यही भान होगा |
यह संज्ञान होगा ||
कोई ‘गीत’ गा लो |
कोई ‘धुन’ बजा लो ||
हर इक अदा,हर अंदाज़ में ही-
रखती यों अपना असर त्रासदी है ||
त्रासदी-त्रासदी-त्रासदी-त्रासदी !!३!!



====!!!!!!!!!!!!!====

Friday, September 28, 2012

ज़लजला(एक भीषण परिवर्तन) ((क)वन्दना(४) राष्ट्र-वन्दना ! मेरे भारत देश ! (ब)



  ! मेरे भारत देश !


   
       (ब)


मेरे भारत देश,’पिता’ का,तुमने सब को ‘प्यार’ दिया है |
‘माता’ बनकर,’ममता’ बाँटी,कितना मधुर दुलार दिया है ||
खाकर ‘अन्न’,’दूध सा जल’पी,’साँसों’ में भर ‘महक हवा की’-
भूल गये अहसान तम्हारा,’पूतों में है ‘लाज’ न बाकी ||१||


तुमसे बढ़ कर,’अपनी सत्ता,कुर्सी औ पद,मान को समझा |
‘स्वार्थ-वित्त,कंचन,चाँदी’ से,कम ‘निष्ठा-ईमान’ को समझा ||
‘फैशन’औ ‘सुखवाद’ को ईश्वर से बढ़ कर सब ने पहंचाना | 
आपस के सम्बन्धों को तज,’भौतिक सुख’ को ऊपर माना ||२||


 ‘तड़क भड़क’ औ चटक मटक’ ही बने ‘सभ्यता के पैमाने’ |
‘यौन-पिपासा’,’काम-वासना’ अपने पाँव लगे फैलाने ||
‘मृग-तृष्णा’ में डूबे सारे ‘पुत्र तुम्हारे’ हो दीवाने ||
तुम्हीं बताओ ‘देश हमारे’,आये ‘कौन’ इन्हें समझाने !!३||


‘बहुमंजिली इमारत वाले,हैं अपने को ‘ईश्वर’ कहते |
‘पूँजी के इन पुजारियों’ के ‘अत्याचार’,’झोंपड़े’ सहते ||
‘धन की प्यास’ बढ़ाई इतनी,’बेच रहे’,’अपने पूतों’ को |
धिक्कारो ‘दहेज के भूखे’,पामर इन ‘विनाश-दूतों को !!४!!


  

हलचल’ मची हुयी, ‘शान्ति के घर के सब स्तम्भ’ हिले हैं |
‘लालच के इन तूफ़ानों’ में, हम को केवल ‘दर्द’ मिले हैं ||
‘लोभ भरी तृष्णा’ तुम को’ ‘जंजीरों’ में ‘जकड लिया’ है |
नागरिकों ने पुन: ‘दासता के कुपन्थ’ को ‘पकड़ लिया’ है ||५||


कुछ ‘पूँजी के दास' कई हैं, ‘गुलाम तन की सुन्दरता के’ |
‘पिंजड़े’ में हैं ‘बन्द’, ‘संकुचित’ ‘ह्रदय’ हुये हैं ‘इस जनता’ के ||
राष्ट्र-देव,’गुरु’ अखिल जगत के,तुम ऐसी कुछ ‘युक्ति’ चलाओ |
‘ईश्वर’ या ‘अवतार-पयम्बर’ इस धरती पर पुन: बुलाओ ||६||


‘राम-कृष्ण’ या ‘बुद्ध’, ‘मुहम्मद’, ‘ईसा’, ‘नानक’ आदि पुकारो !
‘कबीर’,’ग़ालिब’,’गान्धी’बन् कर,अपना बिगड़ा रूप सुधारो !!   
‘त्याग भोग से बड़ा’ पाठ यह, सब को फिर से आज पढाओ !
केवल भौतिक नहीं, ‘आत्मिक,प्रगति-शिखर’ पर हमें चढ़ाओ !!७||


‘प्रेम-नीर’,’सन्तोष-उर्बरक’ से “प्रसून” कुछ सुभग खिलाओ !
तज कर घृणा,बैर ‘हर मानव’ से ‘मानव’का ह्रदय मिलाओ !!
तब कहलाओ ‘गरिमा वाले देश’ धारा पर सब से आगे |
‘युग-सुधार’ हो,और ‘कलुषता’ देश छोड़ कर ‘बाहर भागे’ ||८||
         
 
        
 
     

Thursday, September 27, 2012

ज़लजला(एक भीषण परिवर्तन) ((क)वन्दना (४) राष्ट्र-वन्दना ! मेरे भारत देश ! (अ)


कल गणेश चतुर्थी के पर्व पर भारतीय गण राज्य के तूफानी परिवर्तन की वेदना जब असह्य हो गयी तो एक पुराने गीत से भाव-व्यक्त करना उचित समझा |एक लंबा 'पद्धरी-गीत' दो भागों में प्रस्तुत है | लीजिये उसका प्रथम भाग !



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  ! मेरे भारत देश !
  


मेरे भारत देश तुम्हारा,रहा सदा इतिहास मनोहर!
‘मानवता’औ ‘सत्य-अहिंसा-प्रेम’,तुम्हारे रहे धरोहर ||
‘छल-प्रपञ्च औ प्रवन्चना’ से, सदा दूर तुम रहे अनोखे-
पर ‘आगन्तुक-अतिथि गणों’, ने दिये तुम्हें धोखे ही धोखे ||१||

 

तुमने दे कर शरण सभी को,’शरणागत की आन’ निभाई |
यहाँ रहा जो भी,उसको थे बाँटे,धन-साधन सुख दायी ||
‘भाषा सबकी,सब की संस्कृति’,तुम में रही,फली औ फूली |
सब धर्मों का किया मान वह,बड़ा हो या हो अति मामूली ||२||


राम,कृष्ण,गौतम,कनिष्क औ चन्द्रगुप्त सब पले यहाँ पर |
अकबर,राणा,शिवा,जफ़र औ गाँधी,फूले फले यहाँ पर ||
संकरित,हिन्दी,अरबी,उर्दू,अंग्रेज़ीसब तुमने बोलीं |
कई रंग के तितली,भँवरों,और पंछियों की हर टोली ||३||-

 

रही तुम्हारी प्रीति-वाटिका में मिल जुल कर सदा प्यारसे |
फल खाये,या पराग-मधु पी,सुख में बीते दिन दुलार से ||
किन्तु कई ऐसे भी पनपे, जो थे भीषण अत्याचारी |
नादिर से, चंगेज़खान से,‘मानवता’ के लिये ‘कटारी’ ||४||

 

‘छुरा तुम्हारी पीठ में घोंपा’,आम्भीक ने,‘जय चन्दों’ ने |
वाजिदअली, मीरजाफ़र से सत्ता के लोभी अन्धों ने ||
और फ़िरंगी गोरे बन्दर, मधुवन में जब से घुस आये |
हाथ बढ़ा कर सुन्दर सुन्दर फूल और फल तोड़े खाये ||५||

कुचल कुचल कर‘सुमन-क्यारियाँ’,रौंदीं,मलिन किया‘कुसुमाकर |
‘शहद’और‘जीवनी-सुरस’ सब जमा किये बाहर ले जा कर ||
 कसा ‘शिकंजा छल का’, हाथों पाँवों में जन्जीरें कस दीं |
तुमको ‘दास’ बनाने की थीं ‘उलटी पुलटी चालें’ चल दीं ||६||



और यहाँ की ‘संस्कृति’ पर थी ऐसी गँदली छाप लगा दी |
बदल दिया ‘इतिहास’,’नाश की ढपली, पर यों थाप लगा दी ||
‘सत्ता-मद,खिताब के जूठे-झूठे मान’ के भूखे ‘कूकर’ |
बाँधे‘सोने-चाँदी की जंजीरों’में गोरों ने कास कर ||७||


‘आंगल-सत्ता के चंगुल’ से, तुम्हें छुड़ाया ‘दीवानों’ने |
‘जज्वों के मरहम’ से ‘सारे घाव’ भर दिये ‘मस्तानों’ ने ||
‘स्वतन्त्रता की दीप-शिखा’ पर,प्राण हट दुए ‘परवानों ने ||
थक कर ‘छोड़ दिया’ भारत को ‘रक्त पी रहे हैवानों’ ने ||८||


मेरे प्यारे वतन सुहाने! तब तुमने पाई आज़ादी !
किन्तु ‘तुम्हारी सन्तानों’ ने,’गरिमा की खेतियाँ’ जला दीं ||
‘स्वार्थ,घृणा की आग’जला कर, ‘लोभ और तृष्णा-ईंधन’ में |
‘ज्ञान-प्रेम-धन’ छोड़ रमे हैं,अब ‘इनके ओछे मन’ धन में ||९||
                                 (क्रमश:)